Friday, December 14, 2007

राश्मिरथि - तृतीय सर्ग

|*.......प्रारंभ.......*|

हो गया पूर्ण अज्ञातवास, पांडव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक सद्रश तपकर, वीरत्व लिए कुछ और प्रखर|
नस नस में तेज प्रवाह लिए,
कुछ और नया उत्साह लिए|
सच है विपत्ति जब आती है, कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते, छण एक नहीं धीरज खोते|
विघ्नों को गले लगते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं|
मुख से कभी उफ कहते हैं, संकट का चरण गहते हैं,
जो पड़ता सब सहते हैं, उद्योग-निरत नित रहते हैं|
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को|
है कौन विघ्न ऐसा जग में, टिक सके वीर नर के मग में?
ख़म ठोंक ठेलता है जब नर, पर्वत के जाते पांव उखड|
मानव जब जोर लगता है,
पत्थर पानी बन जाता है|
गुण बड़े एक से एक प्रखर, हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहंदी में जैसे लाली हो, वर्तिका-बीच उजियाली हो|
बत्ती जो नहीं जलाता है,
रोशनी नहीं वो पाता है|
पीसा जाता जब इक्षु-दंड, झरती रस की धारा अखंड,
मेहँदी जब सहती है प्रहार, बनती ललनाओ का सिंगार|
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगते हैं|
वसुधा का नेता कौन हुआ? भूखंड विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ? नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया|
जब विघ्न सामने आते हैं, सोते से हमें जागते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल, तन को झंझोरते हैं पल-पल|
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही|
वाटिका और वन एक नहीं, आराम और रण एक नहीं,
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड, पौरुष के हैं साधन प्रचंड|
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल मिलते हैं|
कंकरिया जिनकी सेज सुधर, छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएं दूध पिलातीं हैं, लोरी आंधियां सुनाती हैं|
जो लाक्षा-ग्रह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं|
बढ़ कर विपत्ति पर छा जा, मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छा जाने दे, तन को पत्थर बन जाने दे|
तू स्वयम तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिंगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम, बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर, पांडव आये कुछ और निखर|
सौभाग्य सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है|
मैत्री की राह बताने को, सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को, भीषण विध्वंश बचाने को|
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये|
दो न्याय अगर तो आधा दो, पर इसमे भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम, रक्खो अपनी धरती तमाम|
हम वहीं ख़ुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि उठाएंगे|
दुर्योधन वह भी दे सका, आशिष समाज की ले सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला, जो था असाध्य, साधने चला|
जब नशा पनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है|
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले|
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ! दुर्योधन बाँध मुझे|
'यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल|
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें|
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल, भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बंध को घेरें हैं, मैनाक-मेरु पग मेरे हैं|
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर|
'दृग हों तो द्रश्य अकाण्ड देख, मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर, नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर|
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिंधु मन्द्र|
शत कोटि विष्णु, ब्रह्म, महेश, शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल, शत कोटि दंडधर लोकपाल|
जंजीर बढाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें|
'भूलोक, अतल, पाताल देख, गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-स्रजन, यह देख महाभारत का रण|
म्रतकों से पटी हुई भू है,
पहचान कहाँ इसमें तू है?
'अम्बर में कुंतल-जाल देख, पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख, मेरा स्वरूप विकराल देख|
सब जनम मुझी से पाते हैं,
फिर लॉट मुझी में आते हैं
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन, साँसों से पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी द्रष्टि जिधर, हँसने लागती है स्रष्टि उधर|
मैं जभी मूंदता हूँ लोचन,
छा जाता चारो ऑर मरण|
'बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बांधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनंत गगन|
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तुने माना, मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ, अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ|
याचना नहीं अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा|
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर, बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का दोलेगा, विकराल काल मुहं खोलेगा|
दुर्योधन! रण ऐसा होगा,
फिर कभी नहीं जैसा होगा|
'भाई पर भाई टूटेंगे, विष-बाण बूँद से छूटेंगे,
वायस-श्रगाल सुख लूटेंगे, सौभाग्य मनुज के फूटेंगे|
आख़िर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा|'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे, चुप थे या थे बेहोश पड़े,
केवल दो नर न अघाते थे, धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे|
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनो पुकारते थे 'जय-जय'|
भगवान सभा को छोड़ चले, करके रण-गर्जन घोर चले,
सामने कर्ण सकुचाया-सा, आ मिला चकित, भरमाया-सा|
हरी बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढे उसे अपने रथ पर|
रथ चला, परस्पर बात चली, शाम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, 'हाय, अब शेष नही कोई उपाय|
हो विवश हमें, धनु धरना है,
क्षत्रिय-समूह को मरना है|
'मैंने कितना कुछ कहा नही? विष-व्यंग कहाँ तक सहा नही?
पर दुर्योधन मतवाला है, कुछ नही समझने वाला है|
चाहिऐ उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल|
'हे वीर! तुम्ही बोलो अकाम, क्या वस्तु बड़ी थी पांच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है, मति गयी मूढ़ की मारी है|
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे ?
'सोचो क्या द्रश्य विकट होगा, रण मी जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार, भीतर विधवाओं की पुकार|
निरसन, विषण्ण बिललायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे|
'चिंता है, मैं क्या और करूं? शांति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने, हाँ, एक बात यदि तू माने|
तो शांति नही जल सकती है,
समराग्नी अभी टल सकती है|
'पा तुझे धन्य है दुर्योधन, तू एकमात्र उसका जीवन,
तेरे बल की है आस उसे, तुझसे जय का विश्वास उसे|
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोडेगा?
'क्या अघटनीय घटना कराल? तू प्रथा-कुक्षि का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है, कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाए आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने को तत्पर|
'माँ का सनेह पाय न कभी, सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर, पा प्रेम बसा दुश्मन के घर|
निज बन्धु मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को|
'पर, कौन दोष इसमें तेरा? अब कहा मान इतना मेरा|
चल होकर संग अभी मेरे, हैं जहाँ पाँच भ्राता तेरे|
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मानायेंगे|
'कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ, बल, बुद्धि, शील में परम श्रेष्ट,
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम, तेरा अभिषेक करेंगे हम|
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे|
'पड़-त्राण भीम पहनाएगा, धर्माधिप चंवर डुलायेगा,
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे, सहदेव नकुल अनुचर होंगे|
भोजन उत्तरा बनाएगी,
पाञ्चाली पान खिलायेगी|
'आहा! क्या द्रश्य सुभग होगा! आनंद-चमत्कृत जग होगा,
सब लोग तुझे पहचानेंगे, असली स्वरूप में जानेंगे|
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी|
रण अनायास रूक जाएगा, कुरुराज स्वयं झुक जाएगा,
संसार बडे सुख में होगा, कोई न कहीं दुःख मी होगा|
सब गीत ख़ुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे|
'कुरुराज समर्पण करता हूँ, साम्राज्य समर्पण करता हूँ,
यश मुकुट मान, सिंहासन ले, बस एक भीख मुझको दे दे|
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे|
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ, क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा, बड़ी यह माया है, जो कुछ आपने बताया है|
दिनमणि से सुनकर वाही कथा,
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि-व्यथा|
'जब ध्यान जन्म का धरता हूँ, उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल, निज तन से जो शिशु को निकल,
धरावों में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
सेवती मास दस तक जिसको, पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है, अंतर का रुधिर पिलाती है|
आती फिर उसको फेंक कहीं,
नागिन होगी, वह नारी नहीं|
'हे कृष्ण! आप चुप ही रहिये, इस पर न अधिक कुछ भी कहिये,
सुनना न चाहे तनिक श्रवण, जिस माँ ने मेरा किया जनन|
वह नहीं नारी कुलपाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी|
'पत्थर-समान उसका हिय था, सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था,
गोदी में आग लगा कर के, मेरा कुल-वंश छिपा करके|
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया|
'माँ का पय भी न पिया मैंने, उलटे, अभिशाप लिया मैंने,
वह तो यशस्विनी बनी रही, सबकी भौं मुझ पर तनी रही|
कन्या वह रही अपरिणिता,
जो कुछ बीता मुझ पर बीता|
मैं जाति गोत्र से हीन, दीन, राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था, कह 'शूद्र' पुकारा जाता था|
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नही|
'मैं सूत वंश में पलता था, अपमान-अनल में जलता था,
सब देख रही थी द्रश्य प्रथा, माँ की ममता पर हुई वृथा|
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी,
छाया अंचल को दे न सकी|
'पा पाँच तनय फूली-फूली, दिन रात बडे सुख में भूली,
कुन्ती गौरव में चूर रही, मुझ पतित पुत्र से दूर रही|
क्या हुआ कि अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
'क्या पाँच पुत्र हो जाने पर, सुत के धन-धान गंवाने पर,
या महानाश के छाने पर, अथवा मन के घबराने पर|
नारियाँ सदय हो जाती हैं?
बिछुड़े को गले लगाती हैं?
'कुन्ती जिस भय से भरी रही, ताज मुझे दूर हट खड़ी रही,
वह पाप अभी भी है मुझमें, वह शाप अभी भी है मुझमें|
क्या हुआ कि वह डर जाएगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
'सहसा क्या हाल विचित्र हुआ? मैं कैसे पुण्य चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता हृदय? मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
'मैं हुआ धनुर्धर जब नामी, सब लोग हुए हित के कामी,
पर ऐसा भी था एक समय, जब यह समाज निष्ठुर, निर्दय|
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विश्व्यंग सदा बरसाता था|
'उस समय सुअंक लगा करके, अंचल के तले छिपा करके,
चुम्बन से कौन मुझे भर कर, ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको?
जननी है वही तजूं किसको?
'हे कृष्ण जरा यह भी सुनिए, सच है कि झूंट, मन में गुनिये,
धूलों में मैं था पड़ा हुआ, किसका स्नेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
न्रपता दे महिमवान किया?
'अपना विकास अवरूद्ध देख, सारे समाज को क्रुद्ध देख,
भीतर जब टूट चुका था मन, आ गया अचानक दुर्योधन|
निश्छल, पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए|
'कुन्ती ने केवल जन्म दिया, राधा ने माँ का कर्म किया,
पर कहते जिसे असल जीवन, देने आया वह दुर्योधन|
वह नहीं भिन्न माता से है,
बढ़ कर सोदर भ्राता से है|
राजा रंक से बना करके, यश, मान मुकुट पहना करके,
बाहों पर मुझे उठा करके, सामने जगत् के ला करके|
करतब क्या-क्या न किया उसने?
मुझको नव-जन्म दिया उसने|
'है ऋणी कर्ण का रोम-रोम, जानते सत्य यह सूर्य-सूम,
तन, मन, धन दुर्योधन का है, यह जीवन दुर्योधन का है|
सुरपुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव! मैं उसे न छोडूंगा|
'सच है, मेरी है आस उसे, मुझपर अटूट विश्वास उसे,
हाँ, सच है मेरे ही बल पर, ठाना है उसने महासमर|
पर मैं कैसा पापी हूँगा,
दुर्योधन को धोखा दूंगा?
'रह साथ सदा खेला, खाया, सौभाग्य-सुयश उससे पाया,
अब जब विपत्ति आने को है, घनघोर प्रलय छाने को है|
ताज उसे भाग यदि जाऊँगा,
कायर, क्रतध्न कहलाउंगा|
'मैं भी कुन्ती का एक तनय, जिसको होगा इसका प्रत्यय?
संसार मुझे धिक्कारेगा, मन में वह यही विचारेगा,
फिर गया तुरत जब राज मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला|
'मैं ही न सहूँगा विषम डंक, अर्जुन को भी होगा कलंक,
सब लोग कहेंगे, डरकर ही, अर्जुन ने अदभुत नीति गही|
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया,
संबंध अनोखा जोड़ लिया|
'कोई न कहीं पर चूकेगा, सारा जग मुझ पर थूकेगा,
टाप, त्याग, शील, जप, योग, दान, मेरे होंगे मिट्टी-समन|
लोभी लालची कहाऊंगा,
किसको, क्या मुख दिखलाऊंगा|
'जो आज आप कह रहे आर्य, कुन्ती के मुख से कृपाचार्य,
सुन वाही, हुए लज्जित होते, हम क्यों रण को सज्जित होते?
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को|
'लेकिन नौका तट छोड़ चली, कुछ पता नही, किस ऑर, चली,
यह बीच नदी की धारा है, सूझता न कूल-किनारा है|
ल लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे|
'धर्मराज का ज्येष्ठ बनूँ? भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन करके, सिर उठा चलूँ कुछ तन करके?
इस झूट-मूठ में रस क्या है?
केशव! यह सुयश-सुयश क्या है?
'सिर पर कुलीनता का टीका, भीतर जीवन का रस फीका,
अपना न नाम जो ल सकते, परिचय न तेज से दे सकते,
ऐसे भी कुछ नर होते हैं,
कुल को खाते औ' खोते हैं|
'विक्रमी पुरुष लेकिन, सिर पर, चलता न छत्र पुरखों का धर,
अपना बल-तेज जगाता है, सम्मान जगत् से पाता है|
सब उसे देख ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं|
'कुल गोत्र नहीं साधन मेरा, पुरुषार्थ बस एक धन मेरा,
कुल ने तो मुझको फेक दिया, मैंने हिम्मत से काम लिया|
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे खोजने आया है|
'लेकिन मैं लॉट चलूँगा क्या? अपने प्रण से विचलूँगा क्या?
रण में कुरुपति का विजय-वरन , या पार्थ-हाथ कर्ण का मरण|
हे कृष्ण! यही मति मेरी है,
तीसरी नहीं गति मेरी है|
मैत्री की बड़ी सुखद छाया, शीतल हो जाती है काय,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर, जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है,
खुद आप नहीं कट जाता है|
'जिस नर की बाँह गही मैंने, जिस तरु की छांह गही मैंने,
उस पर न वार चलने दूँगा, कैसे कुठार चलने दूँगा?
जीते जी उसे बचाऊंगा,
या आप स्वयम् कट जाऊँगा|
'मित्रता बड़ा अनमोल रतन, कब इसे टोल सकता हैं धन?
धरती की तो है क्या बिसात? आ जाये अगर बैकुंठ हाथ,
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरुपति के चरणों पर धर दूँ|
'सिर लिए स्कन्ध पर चलता हूँ, उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर, ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर|
कटवा दूं उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
'सम्राट बनेंगे धर्मराज, या पायेगा कुरुराज ताज,
लड़ना भर मेरा काम रह, दुर्योधन का संग्राम रहा|
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है|
'कुरुराज्य चाहता मैं कब हूँ, साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना? मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धुल समझता हूँ|
'धनराशि जोगना लक्ष्य नही, साम्राज्य भोगना लक्ष्य नही,
भुजबल से कर संसार-विजय, अगणित समृद्धियों का संचय|
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी न सकी मन को|
'वैभव विलास की चाह नही, अपनी कोई परवाह नही,
बस, यही चाहता हूँ केवल, दान की देव-सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भारती रहे सदा|
'तुच्छ है राज्य क्या है केशव? पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास, कुछ चाकचिक्य, कुछ क्षण विलास,
पर, वह भी यहीं गँवाना है,
कुछ साथ नहीं ले जाना है|
'मुझ से मनुष्य जो होते हैं, कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को, लाते हैं रतन लुटाने को|
जग से न कभी न कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं|
'प्रासादों के कनकाभ शिखर, होते कबूतरों की ही घर,
महलों में गरूड़ न होता है, कंचन पर कभी न सोता है|
बसता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में|
'होकर समृद्धि-सुख के अधीन, मानव होता नित तपः क्षीण।
सत्ता, किरीट, मणिमय आसन, करते मनुष्य का तेज-हरण|
नर विभव-हेतु ललचाता है,
पर वही मनुज को खाता है|
'चांदनी, पुष्पछाया में पल, नर भले बने सुमधुर, कोमल,
पर, अमृत क्लेश का पिए बिना, आतप, अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नहीं कहलासकता,
विघ्नों को नहीं हिला सकता|
'उड़ते जो झंझावातों में, पीते जो वारि प्रपातों में,
सारा आकाश अयन जिनका, विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फणिबन्ध छुड़तें हैं,
धरती का ह्रदय जुडातें हैं|
'मैं गरुड़ कृष्ण! मैं पक्षिराज, सिर पर न चाहिए मुझे ताज,
दुर्योधन पर है विपद घोर, सकता न किसी विधि उसे छोड़|
रणखेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको|
'संग्राम-सिंधु लहराता है, सामने प्रलय गहराता है,
रह-रहकर भुजा फड़कती है, बिजली सी नसें कड़कती हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडूँ,
जीतूँ कि समर में डूब मरूँ|
'अब देर नहीं कीजै केशव! आवसेर नहीं कीजै केशव!
धनु की डोरी तन जाने दें, संग्राम तुरत ठन जाने दें|
तान्डवी तेज लहरायेगा,
संसार ज्योति कुछ पायेगा|
'पर, एक विनय है मधुसूदन! मेरी यह जन्मकथा गोपन;
मत कभी युधिष्ठिर से कहिये, जैसे हो, इसे दबा रहिये|
वे इसे जान यदि पायेंगे,
सिंघासन को ठुकरायेंगे|
'साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे, सारी सम्पत्ति मुझे देंगे,
मैं भी न उसे रख पाऊंगा, दुर्योधन को दे जाऊंगा|
पांडव वंचित रह जायेंगे,
दुःख से न छूट वे पायेंगे|
'अच्छा अब चला, प्रणाम आर्य! हो सिद्ध समर के शीध्र कार्य,
रण में ही अब दर्शन होगा, शर से चरण-स्पर्शन होगा|
जय हो, दिनेश नभ में विहरें,
भूतल में दिव्य प्रकाश भरें|'

रथ से राधेय उतर आया, हरी के मन में विस्मय छाया,
बोले कि 'वीर! शत बार धन्य, तुझ-सा न मित्र कोई अनन्य|
तू कुरुपति का ही नहीं प्रण,
नरता का भूषण महान|'

|*.......समाप्त.......*|

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