मैंने छुटपन में छिप कर पैसे बोये थे,
सोचा था पैसों के प्यारे पेड़ लगेंगे,
रुपयों की कलदार मधुर फसलें खनकेंगी,
और फूल फल कर मैं मोटा सेठ बनूँगा,
पर बंजर धरती में एक न अंकुर फूटा,
बंध्या मिट्टी ने ना एक भी पैसा उगला,
सपने जाने कहाँ मिटे, कब धूल हो गए,
मैं हताश हो बाट जोहता रहा दिनों तक,
बाल-कल्पना के अपलक पावडे बिछा कर,
मैं अबोध था मैंने गलत बीज बोये थे,
ममता को रोपा था, तृष्णा को सींचा था|
अर्ध सती हहराती निकल गयी है तब से,
कितने ही मधु पतझर बीत गए अनजाने,
ग्रीष्म तपे, वर्षा झूलीं, शर्दें मुसकाई,
सी-सी कर हेमंत कपें, तरू झरें, खिले वन,
औ' अब फिर से गाढ़ी उदी लालसा लिए,
गहरे कजरारे बादल बरसे धरती पर,
मैंने कौतूहल वश, आँगन के कोने की,
गीली तह को यों ही ऊँगली से सहलाकर,
बीज सेम के दबा दिए मिट्टी के नीचे|
अभी बाकी है ........................
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